जनन के दौरान जीवों में
विभिन्नता
जनन (Reproduction):
जीव अपने प्रजाति की उतरजिविता को समष्टि में बनाए रखने के
लिए अपने जैसे संतति को एक प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न करते हैं | इस प्रक्रिया को जनन कहते हैं |
डी.एन.ए. प्रतिकृति (Copy)
का प्रजनन में महत्व :
जनन की मूल घटना डी. एन. ए.
की प्रतिकृति बनाना है । डी. एन. ए. की प्रतिकृति बनाने के लिए कोशिकाएँ विभिन्न रासायनिक क्रियाओं का उपयोग करती है
। जनन कोशिका में इस प्रकार डी. एन. ए. की दो प्रतिकृतियाँ बनती है। इनके प्रजनन
में निम्नलिखित महत्त्व है |
(i) जनन के दौरान डी. एन. ए.
प्रतिकृति का जीव की शारीरिक संरचना एवं डिजाइन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है जो
विशिष्ट निकेत के योग्य बनाती है ।
(ii) डी. एन. ए. की प्रतिकृति
संतति जीव में जैव विकास के लिए उतरदायी होती हैं ।
(iii) डी. एन. ए. की प्रतिकृति
में मौलिक डी. एन. ए. से कुछ परिवर्तन होता है मूलतः समरूप नहीं होते अतः जनन के
बाद इन पीढीयों में सहन करने की क्षमता होती है ।
(iv) डी. एन. ए. की प्रतिकृति
में यह परिवर्तन परिवर्तनशील परिस्थितियों में जीवित रहने की क्षमता प्रदान करती
है ।
शारीरिक अभिकल्प में
विविधता का कारण:
शरीर का अभिकल्प समान होने
के लिए जनन जीव के अभिकल्प का ब्लूप्रिंट तैयार करता है। परन्तु अंततः शारीरिक
अभिकल्प में विविधता आ ही जाती है। क्योंकि कोशिका के केन्द्रक में पाए जाने वाले
गुणसूत्रों के डी. एन. ए. के अणुओं में आनुवांशिक गुणों का संदेश होता है जो जनक
से संतति पीढी में जाता है । कोशिका के केन्द्रक के डी. एन. ए. में प्रोटीन संश्लेषण के लिए सूचना निहित होती हैं इस
सूचना के भिन्न होने की अवस्था में बनने वाली प्रोटीन भी भिन्न होगी । इन विभिन्न
प्रोटीनों के कारण अंततः शारीरिक अभिकल्प में विविधता आ ही जाती है।
जीवों में विभिन्नता कैसे
आती है?
जनन के दौरान जनन कोशिकाओं
में डी. एन. ए. की दो प्रतिकृति (copy) बनती है इसके
साथ-साथ दूसरी कोशिकीय संरचनाओं का सृजन भी होता है, और प्रतिकृतिया जब अलग होती हैं तो एक कोशिका विभाजित होकर दो कोशिकाएँ बनाती
है | चूँकि कोशिका के केन्द्रक के डी. एन. ए. में
प्रोटीन संश्लेषण के लिए सूचनाएँ भिन्न होती हैं इसलिए बनने वाले प्रोटीन में भी
भिन्नता आ जाती है | ये सभी जैव-रासायनिक
प्रक्रिया होती है जिसमें डी. एन. ए. की प्रतिकृति बनने के दौरान ही भिन्नता आ
जाती है यही जीवों में विभिन्नता का कारण है |
जीवों में विभिन्नता का
महत्त्व:
(i) विभिन्नताओं के कारण ही
जीवों कि समष्टि परितंत्र में स्थान अथवा निकेत ग्रहण करती हैं |
(ii) विभिन्नताएँ समष्टि में
स्पीशीज की उत्तरजीविता बनाए रखने में उपयोगी है |
(iii) जीवों में पायी जाने वाली
विभिन्नताएँ ही जैव-विकास का आधार है | चूँकि जबतक संतति
में विभिन्नताएँ न हो जैव-विकास नहीं कहा जा सकता है |
(iv) विभिन्नताएँ परिवर्तनशील
परिस्थितियों में जीवित रहने की क्षमता प्रदान करती है ।
विभिन्नताएँ जीवों की
स्पीशीज के उत्तरजीविता के लिए उत्तरदायी है :
जीवों में विभिन्नता ही
उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में बने रहने में सहायक हैं। शीतोष्ण जल में पाए
जाने वाले जीव़ पारिस्थितिक तंत्र के अनुकुल जीवित रहते है। यदि वैश्विक उष्मीकरण
के कारण जल का ताप बढ जाता हैं तो अधिकतर जीवाणु मर जाएगें, परन्तु उष्ण प्रतिरोधी क्षमता वाले कुछ जीवाणु ही खुद को बचा पाएगें और वृद्धि
कर पाएगें । अतः जीवों में विभिन्नता स्पीशीज की उतरजीविता बनाए रखने में उपयोगी
हैं ।
जनन कि विधियाँ -अलैंगिक
जनन
जीवों में जनन की विधियाँ :
जीवों में जनन विधियाँ
जीवों के शारीरिक अभिकल्प (body Design) पर निर्भर करती हैं |
जीवों में जनन की दो
विधियाँ हैं :
1. अलैंगिक जनन (Asexual
Reproduction)
2. लैंगिक जनन (Sexual
Reproduction) : जनन की वह विधि जिसमें नर एवं मादा दोनों भाग
लेते हैं | लैंगिक जनन कहलाता है |
जनन एवं लैंगिक जनन में
अंतर :
अलैंगिक जनन :
1. इसमें सिर्फ एकल जीव भाग
लेते हैं |
2. इस प्रक्रिया द्वारा
उत्पन्न जीवों में विविधता नहीं पाई जाती है |
3. युग्मक का निर्माण नहीं
होता है |
4. इसमें जनक और संतति में
पूर्ण समानता पाई जाती है |
लैंगिक जनन:
1. इसमें नर एवं मादा दोनों
भाग लेते हैं |
2. इस प्रक्रिया द्वारा
उत्पन्न जीवों में विविधता पाई जाती है |
3. इसमें नर एवं मादा युग्मक
का निर्माण होता है |
4. इसमें केवल अनुवांशिक रूप
से समान होते है शारीरिक संरचना में विविधता पाई जाती है |
1. अलैंगिक जनन (Asexual
Reproduction):
जनन की वह विधि जिसमें
सिर्फ एकल जीव ही भाग लेते है | अलैंगिक जनन कहलाता है |
अलैंगिक जनन के प्रकार :
(A) विखंडन (Fission) :
जनन की यह अलैंगिक प्रक्रिया एक कोशिकीय जीवों में होता है
जिसमें एक कोशिका दो या दो से अधिक संतति कोशिकाओं में विभाजित हो जाती है |
विखंडन प्रक्रिया दो प्रकार
से होती है |
(i) द्विविखंडन (Binary
Fission) : इस विधि में जीव की कोशिका दो बराबर भागों में
विभाजित हो जाता है | उदाहरण : अनेक जीवाणु एवं
प्रोटोजोआ जैसे - अमीबा एवं लेस्मानिया आदि |
अमीबा और लेस्मानिया के
द्विखंडन में अंतर :
अमीबा में द्विखंडन किसी भी
तल से हो सकता है जबकि लेस्मानिया में द्विखंडन एक निश्चित तल से ही होता है |
(ii) बहुखंडन (Multiple
Fission) : इस विधि में जीव एक साथ कई संतति कोशिकाओं में
विभाजित हो जाते है, जिसे बहुखंडन कहते हैं |
उदाहरण : मलेरिया परजीवी
प्लैज्मोडियम |
(B) खंडन (Fragmentation)
: इस प्रजनन विधि में सरल संरचना वाले बहुकोशिकीय
जीव विकसित होकर छोटे-छोटे टुकड़ों में खंडित हो जाते है | ये टुकड़े वृद्धि कर नए जीव (व्यष्टि) में विकसित हो जाते हैं |
उदाहरण: स्पाइरोगाईरा |
(C) पुनरुदभावन (पुनर्जनन) (Regeneration)
: पूर्णरूपेण विभेदित जीवों में अपने कायिक भाग से
नए जीव के निर्माण की क्षमता होती है। अर्थात यदि किसी कारणवश जीव क्षत-विक्षत हो
जाता है अथवा कुछ टुकड़ों में टूट जाता है तो इसके अनेक टुकड़े वृद्धि कर नए जीव
में विकसित हो जाते हैं। उदाहरणतः हाइड्रा तथा प्लेनेरिया जैसे सरल प्राणियों को
यदि कई टुकड़ों में काट दिया जाए तो प्रत्येक टुकड़ा विकसित
होकर पूर्णजीव का निर्माण कर देता है। यह प्रक्रिया पुनर्जनन कहलाता है |
संक्षेप में, किसी कारणवश, प्लेनेरिया,
हाईड्रा जैसे जीव क्षत-विक्षत होकर टुकड़ों में टूट जाते है
तो प्रत्येक टुकड़ा नए जीव में विकसित हो जाता है | यह प्रक्रिया पुनर्जनन कहलाता है |
परिवर्धन (Development)
: पुनरुद्भवन (पुनर्जनन) विशिष्ट कोशिकाओं द्वारा संपादित
होता है। इन कोशिकाओं के क्रमप्रसरण से अनेक कोशिकाएँ बन जाती हैं। कोशिकाओं के इस
समूह से परिवर्तन के दौरान विभिन्न प्रकार की कोशिकाएँ एवं ऊतक बनते हैं। यह
परिवर्तन बहुत व्यवस्थित रूप एवं क्रम से होता है जिसे परिवर्धन कहते हैं।
मुकुल (Bud) : जीवों में कोशिकाओं के नियमित विभाजन के कारण एक स्थान पर
उभार बन जाते हैं इन उभारों को ही मुकुल (bud) कहते हैं |
(D) मुकुलन (Budding)
: हाइड्रा जैसे कुछ प्राणी पुनर्जनन की क्षमता वाली कोशिकाओं
का उपयोग मुकुलन के लिए करते हैं। हाइड्रा में कोशिकाओं के नियमित विभाजन के कारण
एक स्थान पर उभार विकसित हो जाता है। यह उभार (मुकुल) वृद्धि करता हुआ नन्हे जीव
में बदल जाता है तथा पूर्ण विकसित होकर जनक से अलग होकर स्वतंत्रा जीव बन जाता है।
जनन की यह प्रक्रिया मुकुलन कहलाती है |
उदाहरण: यीस्ट और हाईड्रा
जैसे जीवों में जनन मुकुलन के द्वारा होता है |
(E) बीजाणु समासंघ (Spore
Formation) : अनेक सरल बहुकोशिकिक जीवों में जनन के लिए
विशिष्ट जनन संरचनायें पाई जाती है | इन संरचनाओं के उर्ध्व
तंतुओं पर सूक्ष्म गुच्छ जैसी संरचानाये होती हैं जिन्हें बीजाणुधानी कहते है |
इन्ही बीजाणुधानी में जनन के लिए बीजाणु पाए जाते है जो
वृद्धि कर नए जीव उत्पन्न करते हैं |
उदाहरण : राइजोपस आदि |
बीजाणुओं की विशेषताएँ :
बीजाणु के चारों ओर एक मोटी भित्ति होती है जो प्रतिकुल परिस्थितियों में उसकी
रक्षा करती है, अर्थात चूँकि ये बीजाणु
बीजाणुधानी फटने के बाद इधर-उधर फ़ैल जाते है तब यदि ऐसी परिस्थित हो जिससे इन
बीजाणुओं को नुकसान पहुँचने वाला हो तो इसकी मोटी भित्ति इन फैले हुए बीजाणुओं कि
रक्षा करती हैं और जैसे ही इनके लिए अनुकुल परिस्थिति बनती है ये नम सतह के संपर्क
में आने पर वह वृद्धि करने लगते हैं। और नए जीव उत्पन्न करते है | यही कारण है कि बीजाणु जनन द्वारा जीव लाभान्वित होते है |
पौधों के कायिक भाग (Vegetative
parts of plants) : पौधों के जड़, तना और पत्तियाँ आदि भागों को कायिक भाग कहा जाता है |
(F) कायिक प्रवर्धन (Vegetative
Propagation): पौधों के कायिक भागों जैसे
जड़, तना एवं पत्तियों से भी नए पौधे उगाये जाते है
जनन की इस प्रक्रिया को कायिक प्रवर्धन कहते हैं | इसमें कायिक भाग विकसित होकर नए पौधा उत्पन्न करते हैं |
कायिक प्रवर्धन के लाभ:
कुछ पौधें को उगाने के लिए
कायिक प्रवर्धन का उपयोग करने के कारण निम्न हैं ।
(i) जिन पौधों में बीज उत्पन्न
करने की क्षमता नहीं होती है उनका प्रजनन कायिक प्रवर्धन विधि के द्वारा ही किया
जाता हैं ।
(ii) इस विधि द्वारा उगाये गये
पौधे में बीज द्वारा उगाये गये पौधों की अपेक्षा कम समय में फल और फूल लगने लगते है।
(iii) पौधों में पीढी दर पीढी
अनुवांशिक परिवर्तन होते रहते हैं । फल कम और छोटा होते जाना आदि, जबकि कायिक प्रवर्धन द्वारा उगाये गये पौधों जनक पौधें के
समान ही फल फूल लगते हैं ।
उभय लिंगी जीव : फीताकृमि,
केंचुआ तथा सितारा मछली इत्यादी |
2. लैंगिक जनन (Sexual
Reproduction) :
जनन की वह विधि जिसमें नर
एवं मादा दोनों भाग लेते हैं | लैंगिक जनन कहलाता है |
दुसरे शब्दों, जनन की वह विधि जिसमें नर युग्मक (शुक्राणु) और मादा युग्मक
(अंडाणु) भाग लेते है, लैंगिक जनन कहलाता है |
निषेचन (Fertilization):
नर युग्मक (शुक्राणु) और मादा युग्मक (अंडाणु) के संलयन को
निषेचन कहते है |
नर युग्मक : गतिशील
जनन-कोशिका को नर युग्मक कहते है |
मादा युग्मक : जिस जनन
कोशिका में भोजन का भंडार संचित होता है उसे मादा युग्मक कहते हैं |
लैंगिक जनन के लाभ :
लैगिंक उच्च विकसित
प्रक्रिया है तथा इसके अलैगिक जनन की तुलना में अनेक लाभ है।
(i) लैंगिक जनन, संततियों में गुणों को बढावा देता है क्योंकि इसमें दो
भिन्न तथा लैंगिक असमानता वाले जीवों से आयें युंग्मकों का संलयन होता है।
(ii) लैंगिक जनन में वर्णो के नए
संयोजन के अवसर होता है।
(iii) यह नई जातियों की उत्पति
में महत्वपूर्ण भुमिका निभाता है।
(iv) इस जनन द्वारा उत्पन्न
जीवों में काफी विभिन्नताएँ होती है |
इस विधि से उत्पन्न संतति
शारीरिक रूप से जनक से भिन्न होते है परन्तु डीएनए स्तर पर समान होते हैं |
एक-कोशिक एवं बहुकोशिक
जीवों की जनन पद्धति में अंतर :
एक कोशिकिय जीवों में जनन
की अलैंगिक विधियॉ ही कार्य करती है। जिनमें एक ही जनन कोशिका अन्य संतति कोशिकाओं
में विभाजित हो जाती है। एक कोशिकिय जीवों में केवल एक जनक की आवश्यकता होती है। बहु कोशिकिय जीवों में प्रायः लैंगिक जनन होता है। इसमें
नर तथा मादा जीव की आवश्यकता होती है। जनन के लिए विशेष अंग होते है तथा शरीर में
इनकी स्थिति निश्चित होती है।
डी. एन. ए. की प्रतिकृति
में त्रुटियों का महत्त्व :
डी. एन. ए. की प्रतिकृति
में परिणामी त्रुटियाँ जीवों की समष्टि (जनसंख्या) में विभिन्नता का स्रोत हैं ।
जो उनकी समष्टि को बचाएँ रखने में सहायक है।
त्रुटियाँ आने की प्रक्रिया
निम्न है :
जीवों में जैव-रासायनिक
प्रक्रिया
↓
प्रोटीन संश्लेषण
↓
कोशिकाओं या जनन कोशिकाओं
का निर्माण
↓
डी. एन. ए. की प्रतिकृति का
बनना
↓
प्रतिकृति बनने के दौरान
त्रुटियों का आ जाना
↓
त्रुटियाँ से विभिन्नताओं
का आना
संतति में गुणसूत्रों की
संख्या एवं डी. एन. ए की मात्रा का पुनर्स्थापन :
जनन अंगों में कुछ विशेष
प्रकार की कोशिकाओं की परत होती है जिनमें जीव की कायिक कोशिकाओं की अपेक्षा
गुणसूत्रों की संख्या आधी होती हैं | ये कोशिकाएँ युग्मक
कोशिकाएँ होती है जो दो भिन्न जीवों से होने के कारण लैंगिक जनन में युग्मन द्वारा
युग्मनज (zygote) बनाती है | जब जायगोट बनता है तो दोनों कोशिकाओं से आधे गुणसूत्र और
आधी-आधी डीएनए की मात्रा मिलकर एक पूर्ण जीव में उपस्थित गुणसूत्र और डीएनए की
मात्रा को पूरी कर लेता है | इस प्रकार संतति में
गुणसूत्रों की संख्या एवं डीएनए की मात्रा पुनर्स्थापित हो जाती है |
लैंगिक जनन के अध्ययन को हम
दो भागों में बाँटते है |
A. पौधों में लैंगिक जनन (Sexual
Reproduction in Plants)
B. जंतुओं में लैंगिक जनन (Sexual
Reproduction in Animals)
A. पौधों में लैंगिक जनन (Sexual
Reproduction in Plants) :
पुष्पी पादपों में जननांग :
मादा जननांग : स्त्रीकेसर
स्त्रीकेसर के भाग :
वर्तिकाग्र, वर्तिका और अंडाशय |
नर जननांग : पुंकेसर |
पुंकेसर के भाग : परागकोष
तथा तंतु |
पुष्प दो प्रकार के हैं
(i) एकलिंगी पुष्प (unisexual
flower) :जब पुष्प में पुंकेसर अथवा स्त्रीकेसर में से
कोई एक जननांग उपस्थित होता है तो ऐसे पुष्प एकलिंगी कहलाते हैं | उदाहरण: पपीता, तरबूज इत्यादि।
(ii) द्विलिंगी या उभयलिंगी
पुष्प (Bisexual flower): जब एक ही पुष्प में पुंकेसर
एवं स्त्रीकेसर दोनों उपस्थित होते हैं, तो उन्हें उभयलिंगी
पुष्प कहते हैं। उदाहरण: गुड़हल, सरसों इत्यादि |
पुंकेसर : पुंकेसर नर
जननांग है जो तंतु तथा परागकोश से मिलकर बना है | यह परागकणों को बनाता है |
पुंकेसर का कार्य:
(i) यह नर जननांग है जो परागकण
बनाता है।
परागकोश : परागकोश परागकणों
को संचय करता है |
परागकण (Pollen
grains) : परागकण पौधों में नर युग्मक है जो सामान्यत:
पीले रंग का पाउडर जैसा चिकना पदार्थ होता है |
स्त्रीकेसर : यह मादा
जननांग है जो वर्तिकाग्र, वर्तिका और अंडाशय से मिलकर
बना है | यह पुष्प के केंद्र में अवस्थित होता है |
वर्तिकाग्र : यह पुष्प का
वह मादा भाग है जिस पर परागण की क्रिया होती है | यह चिपचिपा होता है |
वर्तिका : यह एक नलिकाकार
भाग है जो वर्तिकाग्र और अंडाशय को जोड़ता है |
अंडाशय : पुष्प के केंद्र
में स्थित होता है इसमें बीजांड होता है और प्रत्येक बीजांड में एक अंड-कोशिका
होता है, जहाँ निषेचन के पश्चात् भ्रूण बनता है |
स्त्रीकेसर का कार्य :
स्त्रीकेसर मादा जननांग है
जो वर्तिकाग्र , वर्तिका और अंडाशय से मिलकर
बना है।
कार्य:
(i) वर्तिकाग - यहाँ परागण की
क्रिया होती है।
(ii) वर्तिका - वर्तिका को
परागनली भी कहा जाता हैं । यह नर युग्मक को अंडाशय तक पहुँचाता है।
(iii) अंडाशय - अंडाशय पुष्प का
एक प्रमुख मादा जननांग है जहाँ संलयन (निषेचन) की क्रिया होती है और भुण्र का
निर्माण होता है।
जनन की प्रक्रिया (The
Process of Reproduction) :
परागकणों का वर्तिकाग्र पर
स्थानांतरण
↓
परागण
↓
परागित परागकण का वर्तिका
से होते हुए बीजांड तक पहुँचाना
↓
निषेचन
↓
युग्मनज का निर्माण
↓
भ्रूण का विकसित होना
↓
बीज का निर्माण
↓
अंकुरण
↓
नए पौधा का जन्म
परागण (Pollination)
: परागकणों का परागकोश से वर्तिकाग्र तक स्थानान्तरण होने की
प्रक्रिया को परागण कहते है।
परागण दो प्रकार के होते
है।
1. स्वपरागण (Self
Pollination)
2. परापरागण (Cross
Pollination)
1. स्वपरागण (Self
Pollination) :
जब एक पुष्प के परागकोश से
उसी पुष्प के वर्तिकाग्र तक परागकणो का स्थानान्तरण स्व - परागण कहलाता है।
2. परापरागण (Cross
Pollination) :
जब एक पुष्प के पराकोष से उसी
जाति के अन्य दूसरे पौधे के पुष्प के वर्तिकाग्र तक परागकणो का स्थानान्तरण होता
है तो परा - परागण कहलाता है |
परापरागण के कारक :
एक पुष्प से दूसरे पुष्प तक
परागकणों का यह स्थानांतरण वायु, जल अथवा प्राणी जैसे वाहक
द्वारा संपन्न होता है।
1. भौतिक कारक: वायु तथा जल
2. जन्तु कारक: कीट तथा
कीड़े-मकौड़े जैसे - तितली, मधु-मक्खी इत्यादि |
अंकुरण (Germination)
:
बीज में भावी पौधा अथवा
भ्रूण होता है जो उपयुक्त परिस्थितियों में नए संतति में विकसित हो जाता है। इस
प्रक्रम को अंकुरण कहते हैं।
मानव में लैंगिक जनन :
मनुष्य में लैंगिक जनन के
लिए लैंगिक जनन के लिए उत्तरदायी कोशिकाओं का विकास बहुत ही आवश्यक है | इन कोशिकाओं को जनन कोशिकाएँ कहते है | इन कोशिकाओं का विकास मनुष्य के जीवन काल के एक विशेष अवधि
में होता है, जिसमें शरीर के विभिन्न
भागों में विशेष परिवर्तन होते हैं | विशेषतया जनन
कोशिकाओं में परिवर्तन होते है | जैसे-जैसे शरीर में समान्य
वृद्धि दर धीमी होती है जनन-उत्तक परिपक्व (Mature) होना आरंभ करते हैं |
किशोरावस्था (Adolescence)
:
वृद्धि एक प्राकृतिक
प्रक्रम है। जीवन काल की वह अवधि जब शरीर में ऐसे परिवर्तन होते हैं जिसके
परिणामस्वरूप जनन परिपक्वता आती है, किशोरावस्था कहलाती
है।
यौवनारंभ (Puberty)
: किशोरावस्था की वह अवधि जिसमें लैंगिक विकास सर्वप्रथम
दृष्टिगोचर होती है उसे यौवनारंभ कहते हैं | यौवनारंभ का सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन लड़के एवं लड़कियों की जनन क्षमता का
विकास होता है |
दुसरे शब्दों में, किशोरावस्था की वह अवधि जिसमें जनन उतक परिपक्व होना प्रारंभ करते है । यौवनारंभ कहा जाता है
।
यौवनारंभ की शुरुआत : लड़कों तथा लडकियों में यौवनारंभ निम्न शारिरिक परिवर्तनों
के साथ आरंभ होता है ।
लडकों में परिवर्तन - दाढ़ी
मूँछ का आना , आवाज में भारीपन, काँख एवं जननांग क्षेत्र में बालों का आना , त्वचा तैलिय हो जाना, आदि ।
लडकियों में परिवर्तन - स्तन के आकार में वृद्धि होना, आवाज में भारीपन, काँख एवं जननांग क्षेत्र
में बालों का आना , त्वचा तैलिय हो जाना,
और रजोधर्म का होने लगना , जंघा की हडियो का चौडा होना, इत्यादि।
लडकियों में यौवनारंभ 12
- 14 वर्ष में होता है जबकि लडको में यह 13 -
15 वर्ष में आरंभ होता है ।
द्वितीयक या गौण लैंगिक
लक्षण (Secondary Sexual Characters):
गौंड लैंगिक लक्षण वे लक्षण
है जो यौवनारंभ के दौरान वृषण एवं अंडाशय शुक्राणु एवं अंडाणु उत्पन्न करते है तथा
लडकियों में स्तनों का विकास होने लगता है तथा लडकों के चेहरे पर बाल उगने लगते
हैं अर्थात् दाढ़ी-मूॅछ आने लगती है। ये लक्षण क्योंकि लड़कियों को लड़कों से पहचानने
में सहायता करते हैं अतः इन्हें गौण लैंगिक लक्षण कहते हैं।
शारीरिक परिवर्तनों की सूची
:
(i) लंबाई में वृद्धि ।
(ii) शारीरिक आकृति में परिवर्तन
।
(iii) स्वर में परिवर्तन ।
(iv) स्वेद एवं तैलग्रेथियों की
क्रियाशीलता में वृद्धि ।
(v) जनन अंगो का विकास ।
(vi) मानसिक, बौद्धिक एवं संवेदनात्मक परिपवक्ता ।
(vii) गौंड लैंगिक लक्षण
रजोदर्शन : यौवनारंभ के समय रजोधर्म के प्रारंभ को रजोदर्शन कहते है।
यह 12 से 14 वर्ष की आयु की युवतियो में प्रारंभ होता हैं ।
रजोनिवृति (Menopause)
: जब स्त्रियो के रजोधर्म 50 वर्ष की आयु में ऋतुस्राव तथा अन्य धटना चक्रो की समाप्ती रजोनिवृति कहलाती
है।
आवर्त चक्र (Menstrual
Cycle) : प्रत्येक 28 दिन बाद अंडाशय तथा गर्भाशय में होनें वाली घटना ऋतुस्राव द्धारा चिन्हित
होती है तथा आर्वत चक्र या स्त्रियों का लैगिक चक्र कहलाती है।
लैंगिक परिवर्तन (Sexual
changes) : किशोरावस्था में होने वाले ये सभी परिवर्तन एक
स्वत: होने वाली प्रक्रिया है जिसका उदेश्य लैंगिक परिपक्वता (Maturity) है | लैंगिक परिपक्वता 18 से 19 वर्ष की आयु में लगभग
पूर्ण हो जाती है, जिसका आरंभ यौवनारंभ से
शुरू होता है |
संवेदनाओं में परिवर्तन : इस अवधि में होने वाले परिवर्तनों में महत्वपूर्ण
परिवर्तनों में से है मानसिक, बौद्धिक एवं संवेदनाओं में
परिवर्तन |
किशोरावस्था में परिवर्तनों
का कारण :
किशोरावस्था में इन
परिवर्तनों का समान्य कारण लिंग हार्मोन के कारण होते है | वे हार्मोन जो शरीर में लैंगिक परिवर्तनों के लिए उत्तरदायी होते हैं लिंग
हार्मोन कहा जाता है |
लिंग हार्मोन दो प्रकार के
होते हैं :
1. नर लिंग हार्मोन: वे
हार्मोन जो नर में लैंगिक परिवर्तन के उत्तरदायी होते हैं, नर लिंग हार्मोन कहते हैं | जैसे - नर में
टेस्टोस्टेरॉन |
2. मादा लिंग हार्मोन: वे
हार्मोन जो मादा में लैंगिक परिवर्तन के उत्तरदायी होते हैं, मादा लिंग हार्मोन कहते है | उदाहरण - मादा में एस्ट्रोजन और प्रोजेस्ट्रोन |
नर जनन तंत्र (Male
Reproductive System) :
जनन कोशिका उत्पादित करने
वाले अंग एवं जनन कोशिकाओं को निषेचन के स्थान तक पहुँचाने वाले अंग, संयुक्त रूप से, नर जनन तंत्र बनाते
हैं।
नर जनन तंत्र बनाने वाले
अंग जो जनन क्रिया में भाग लेते है नर जननांग कहलाते हैं |
1. वृषण (Testes) :
नर जननांगों में वृषण प्रमुख अंग है जो नर जनन कोशिका
अर्थात शुक्राणु का निर्माण करता है | यह उदर गुहा के बाहर
वृषण कोष (Scrotum) में स्थित होता है |
इसके दो भाग होते है | एक वह भाग जो शुक्राणु का निर्माण करता है और दूसरा भाग जिसे अंत:स्रावी ग्रंथि (endocrine gland) भी कहते है ये टेस्टोस्टेरॉन नामक हार्मोन का स्राव करता है | टेस्टोस्टेरॉन जो नर में लैंगिक परिवर्तनों के उत्तरदायी है
और इसे नियंत्रण भी करता है |
वृषण का कार्य :
(i) नर जनन कोशिका अर्थात
शुक्राणु का निर्माण करता है |
(ii) ये टेस्टोस्टेरॉन नामक
हार्मोन का स्राव करता है |
वृषण कोष (Scrotum) का कार्य : इसी कोश में वृषण स्थित होता है |
(i) यह वृषण के शुक्राणु (sperm)
निर्माण के लिए आवश्यक ताप को नियंत्रण करता है | चूँकि शुक्राणु निर्माण के लिए शरीर के ताप से भी कम ताप की
आवश्यकता होती है |
(ii) यह वृषण को स्थित रहने के
लिए स्थान प्रदान करता हैं |
शुक्रवाहिनी (Vas
Difference) : वृषण में शुक्राणु निर्माण के बाद इसी
शुक्रवाहिनी से होकर शुक्राशय तक पहुँचता है | आगे ये शुक्रवाहिकाएँ मूत्राशय से आने वाली नली से जुड़ कर एक संयुक्त नली
बनाती है। अतः मूत्रामार्ग (urethra) शुक्राणुओं एवं मूत्र
दोनों के प्रवाह के उभय मार्ग है।
शुक्राशय (Seminal
Vesicles) :
शुक्राशय एक थैली जैसी
संरचना है जो शुक्राणुओं का संग्रह करता है | ये अपने यहाँ संग्रहित शुक्राणुओं को शुक्रवाहिका में डालते हैं |
प्रोस्ट्रेट ग्रंथि या
पौरुष ग्रंथि : यह एक बाह्य स्रावी ग्रंथि है जो एक तरल पदार्थ का निर्माण करता है
जिसे वीर्य (semen) कहते है | यह शुक्राणुओं की गति के लिए एक तरल माध्यम प्रदान करता हैं
| इसके कारण शुक्राणुओं का स्थानांतरण सरलता से
होता है | और ये शुक्राणुओं का पोषण भी प्रदान करता है |
शुक्राणु (Sperms) :
शुक्राणु सूक्ष्म सरंचनाएँ हैं जिसमें मुख्यतः आनुवंशिक
पदार्थ होते हैं तथा एक लंबी पूँछ होती है जो उन्हें मादा जनन-कोशिका की ओर तैरने
में सहायता करती है।
मादा जनन तंत्र (Female
Reproductive System) :
मादा जनन तंत्र में तीन
प्रमुख जननांग हैं |
(1) अंडाशय (Ovary)
(2) अंडवाहिका (Fallopian tube)
(3) गर्भाशय (Uterus)
(1) अंडाशय (Ovary): यह मादा जनन अंगों में से प्रमुख अंग है |
इसके कार्य क्षेत्र में भी
वृषण की तरह दो भाग होते हैं, एक भाग जो मादा जनन-कोशिका
अर्थात अंडाणु का निर्माण करता है और दूसरा अंत:स्रावी ग्रंथि (endocrine gland) भाग जो लिंग हार्मोन
एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्ट्रोन का स्राव करता है | अंडाणु का निर्माण अंडाशय के फोलिकल्स से होता है | एक मादा में दो अंडाशय होते है जो दोनों गर्भाशय के दोनों ओर स्थित होते हैं |
दोनों अंडाशय में असंख्य फोलिकल्स होते है जिसमें अपरिपक्व
(Imatured) अंडाणु होते है | वह अंडाणु जो परिपक्व हो चूका होता है समान्यत: 28 दिन में अंडाशय से निकलता है और अंडवाहिनी से होकर गर्भाशय तक पहुँचता है |
अंडाशय का कार्य:
(i) मादा जनन-कोशिका अर्थात
अंडाणु का निर्माण करता है |
(ii) मादा लिंग हार्मोन
एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्ट्रोन का स्राव करता है |
लिंग हार्मोन एस्ट्रोजन एवं
प्रोजेस्ट्रोन का कार्य :
(i) मादा में लैंगिक परिवर्तन
के उत्तरदायी होते हैं |
(ii) अण्डोत्सर्ग (Releasing
of eggs) को नियंत्रित करते हैं |
(2) अंडवाहिका (Fallopian tube):
अंडवाहिका मादा जनन अंग का एक नलिकाकार भाग हैं
जो गर्भाशय के दोनों ओर स्थित होते है | ये अंडाणुओं का वहन
करता है अर्थात यह अंडाणुओं के गर्भाशय तक पहुँचने का मार्ग है | निषेचन की प्रक्रिया भी फेलोपियन ट्यूब (अंडवाहिनी) में ही
होता है |
(3) गर्भाशय (Uterus) :
दोनों अंडवाहिकाएँ संयुक्त होकर एक लचीली थैलेनुमा संरचना
का निर्माण करती हैं जिसे गर्भाशय कहते हैं। गर्भाशय ग्रीवा द्वारा योनि में खुलता
है।
गर्भाशय का कार्य :
(i) निषेचित अंड अथवा युग्मनज
गर्भाशय में स्थापित होता है |
(ii) भ्रूण का विकास गर्भाशय में
ही होता है |
(iii) प्लेसेंटा का रोपण गर्भाशय
में होता है |
अपरा या प्लेसेंटा (placenta)
: भ्रूण को माँ के रुधिर से ही पोषण मिलता है, इसके लिए एक विशेष संरचना होती है जिसे प्लैसेंटा कहते हैं।
यह एक तश्तरीनुमा संरचना है
जो गर्भाशय की भित्ति में धँसी होती है। इसमें भ्रूण की ओर के ऊतक में प्रवर्ध
होते हैं। माँ के ऊतकों में रक्तस्थान होते हैं जो प्रवर्ध को आच्छादित करते हैं।
यह माँ से भ्रूण को ग्लूकोज, ऑक्सीजन एवं अन्य पदार्थों
के स्थानांतरण हेतु एक बृहद क्षेत्र प्रदान करते हैं। विकासशील भ्रूण द्वारा
अपशिष्ट पदार्थ उत्पन्न होते हैं जिनका निपटान उन्हें प्लैसेंटा के माध्यम से माँ
के रुधिर में स्थानांतरण द्वारा होता है।
जनन स्वास्थ्य (Reproductive
Health)
- जनन स्वास्थ्य का अर्थ है, जनन से संबंधित सभी आयाम जैसे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और व्यावहारिक रूप से स्वस्थ्य होना |
- यौन क्रियाओं से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव
- असुरक्षित यौन क्रियाओं से लैंगिक संचारित रोगों का फैलना
- परिवार नियोजन से सम्बंधित समस्याएँ
- जनन स्वस्थ्य के प्रति जागरूकता : जननी मृत्यु, शिशु मृत्यु आदि में सुधार
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