गर्भावस्था में सावधानियां/Precautions During
Pregnancy
स्त्री तब पूर्ण होती है जब वह माँ बनती है । किसी युवती के लिये पहली बार माँ बनना एक अनोखी और चुनौतीपूर्ण क्रिया
होती है । गर्भ धारण करने के बाद से युवती के शरीर में कई तरह के बदलाव शुरू हो
जाते हैं । यह बदलाव पहले महीने से शुरू हो जाते हैं और डिलेवरी के बाद के कुछ
महीने तक होते हैं । पहली बार माँ बन रही युवती के लिये ऐसे समय में घर की बड़ी और
अनुभवी महिलाओं का साथ होना जरूरी होता है । महानगरों में जहॉं लोग एकल परिवारों
में रहते हैं वहाँ किसी अनुभवी महिला के न होने से दिक्कते पेश आती हैं । ऐसे में
स्त्रीरोग विशेषज्ञ से सलाह लेते रहना चाहिये ।
गर्भावस्था के पहले महीने से ही गर्भवती युवती को कुछ
सावधानियां बरतनी शुरू कर देनी चाहिये । ये सावधानियाँ खान-पान, रहन सहन, सेक्स के तरीकों में बदलाव आदि में करनी पड़ती है । हिंदू
संस्कृति में 16 वैदिक संस्कारों
को महत्वपूर्ण माना गया है । इसमें शुरू के तीन संस्कार गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार और सीमंतोन्नयन संस्कार बच्चे
के गर्भ में आने और पैदा होने के पहले किये जाते हैं । इसमें दूसरे नंबर का
संस्कार पुंसवन संस्कार महत्वपूर्ण है । इसके अनुसार माता-पिता को यह संकल्प लेना
होता है कि वे गर्भ में पल रहे बच्चे की सुरक्षा करेंगे । कुल मिला कर आज के माता
पिता को पुंसवन संस्कार पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिये । उन्हें गर्भ में पल
रहे शिशु और माँ की सेहत का ख्याल रखना चाहिये और इसके लिये कुछ जरूरी सावधानियॉं
हैं जिनका उन्हें ख्याल रखना चाहिए । वे जरूरी सावधानियां नीचे दी गयी हैं ।
जरूरी सावधानियां
गर्भधारण करते ही माता पिता को गर्भ में पल रहे भ्रूण की रक्षा के लिये सबसे पहले सेक्स की पोजीशन
में बदलाव लाने चाहिये । किसी भी हालत में गर्भ पर या पेट पर दबाव नहीं पड़ना
चाहिये । चौथे महीने से नौवें महीने तक सेक्स की फ्रीक्वेंसी कम कर देनी चाहिये ।
चौथे महीने में जहॉं सेक्स हफ्ते में एक बार करना चाहिये वहीं सातवें, आठवें महीने में एक बार ही सेक्स करना चाहिये ।
गर्भावस्था शुरू होते ही स्त्रीरोग विशेषज्ञ से नियमित
परामर्श लेते रहना चाहिये ।
गर्भावस्था के दौरन मॉं को अतिरिक्त पोषण की जरूरत होती है
। ऐसे में डाइटिशियन से अलग अलग महीने का चार्ट बनवा लेना चाहिये और उसी हिसाब से
नियमित भोजन लेना चाहिये ।
गर्भावस्था के दौरान अत्यधिक श्रम नहीं करना चाहिये ।
अपने मन से कोयी भी दवा नहीं लेनी चाहिये । डाक्टर के
परामर्श से ही दवा लेनी चाहिये । बहुत सी दवाओं का गर्भ में पल रहे शिशुओं पर
विपरीत असर पड़ता है ।
गर्भावस्था में योनि से खून आने पर डाक्टर को जरूर बतायें ।
इनफैक्शन या घाव होने पर या सफेद और पीला स्राव होने पर गंभीरता से लेना चाहिये और
डाक्टर से तुरंत परामर्श लेना चाहिये ।
24 सप्ताह से पहले खून का आना गर्भपात के लक्षण हो सकते हैं ।
इसमें कभी खून कम आता है और कभी ज्यादा मात्रा में । ऐसे में स्त्रीरोग विशेषज्ञ
को तुरंत दिखाना चाहिये ।
दूसरे महीने से कुछ विशेष सावधानियॉं बरतनी चाहिये जैसे
भारी सामान उठाना नहीं चाहिये, अधिक सीढ़ियॉं
नहीं चढ़नी चाहिये, उछलकूद से भी
बचना चाहिये, अगर कोयी
एक्सरसाइज पहले करती हैं तो उसे बंद कर देना चाहिये ।
चौथे महीने से ऊंचाई पर चढ़ना बंद कर देना चाहिये, दोपहर में आराम करना चाहिये ।
छठे महीने से आहार में परिवर्तन कर देना चाहिये । वैसे तो
डाक्टर अलग से विटमिन्स, कैल्शियम और आयरन
की गोलियॉं शुरू कर देते हैं पर यहॉं पर चटपटे, मिर्च-मसालेदार भोजन और फास्टफूड से परहेज करना चाहिये ।
धार्मिक और ज्ञानवर्धक साहित्य पढ़ना चाहिये ताकि गर्भ में पल रहे बच्चे का संस्कार
बनने लगे । ऐसे दिनों में टीवी और फिल्मों में भी अच्छे और खुशनुमा सीरियल और
फिल्में ही देखनी चाहिये न की हॉरर और एक्शन फिल्में ।
आठवें और नौवे महीने में घर में हल्का फुल्का काम ही करें ।
अधिक झुकना नहीं चाहिये और जितना हो सके लेट कर वक्त गुजारना चाहिये ।
महत्वपूर्ण जांचें
गर्भावस्था के दौरान डॉक्टर गर्भवती स्त्री की कई
महत्वपूर्ण जांच करवाती हैं जिससे गर्भ में पल रहे शिशु के बारे में जानकारी मिलती
है और गर्भवती स्त्री के शरीर में हो रहे बदलावों और शरीर में कोयी कमी है तो उसकी
जानकारी मिलती है । कुछ प्रमुख जांचे निम्नलिखित हैं ।
गर्भ में पल रहे बच्चे की फीटल डॉपलर मशीन से हृदयगति की
जांच की जाती है ।
गर्भवती स्त्री के कूल्हे की हड्डियों की बनावट कैसी है ।
गर्भाशय में कोयी सूजन, रसौली या मांस आदि तो नहीं है ।
योनि या गर्भाशय में कोयी रोग तो नहीं है ।
गर्भवती स्त्री के रक्त की जांच, हीमोग्लोबिन की जांच (रक्त में आयरन की कमी से बच्चे के
विकास पर असर पड़ता है)
ब्लडगु्रप की जांच और आर एच फैक्टर की जांच ।
सेक्सजनित रोगों की जांच । ये रोग भू्रण में पल रहे बच्चे
के विकास को बाधित करते हैं ।
एच आई वी वायरस की जांच ।
अल्ट्रासाउंड एक बेहद जरूरी जांच है जच्चा और बच्चा दोनों
के लिये । इसके द्वारा भू्रण के आकार, प्रकार, उम्र, दिल की धड़कन, विकास, शिशु के शरीर के
महत्वपूर्ण अंगों की जानकारी, गर्भ में शिशु को
हो रहे किसी रोग, जुड़वा बच्चे
आदि का पता चलता है ।
गर्भवती स्त्री को टिटनेस का इंजेक्शन जरूर देना चाहिये ।
गर्भवती स्त्री का भोजन
गर्भवती स्त्री का भोजन संतुलित होना चाहिये । गर्भ के
दौरान गर्भवती स्त्री के भोजन में आयरन, कैल्शियम, प्रोटीन और
मिनरल्स की जरूरत बढ़ जाती है । गर्भ में पल रहा बच्चा भी मॉं के भोजन पर ही निर्भर
करता है । गर्भ में पल रहे शिशु के विकास के लिये आयरन और कैल्शियम बहुत जरूरी
होता है । आयरन से खून की कमी नहीं होने पाती है और शिशु का विकास ठीक से होता है
। कैल्शियम शिशु की हड्डियॉं निर्मित करता है इसलिये मॉं के खान पान में कैल्शियम
भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । आईये आपको बताते हैं की भोजन में किन किन चीजों
से कौन कौन सा पोषण मिलता है ।
पालक, बंद गोभी,
पुदीना, धनिया, गुड़, किशमिश, मूंग की दाल, काबुली चना, लोबिया, राजमा और सोयाबीन के सेवन से गर्भवती स्त्री को
आयरन मिलता है ।
कैल्शियम के लिये गर्भवती स्त्री को दूध या दूध से बनी
चीजें खानी चाहिये जैसे पनीर, दही, मक्खन आदि । अंडे में भी कैल्शियम काफी मात्रा
में होता है । कम से कम एक गिलास दूध जरूर पीना चाहिये । कैल्शियम की कमी से
मांसपेशियों में एठन, हड्डियों और कमर
में दर्द होने लगता है ।
प्रोटीन भी गर्भ में पल रहे शिशु के विकास के लिये जरूरी है
। प्रोटीनयुक्त भोजन के लिये आप इन चीजों को भोजन में शामिल कर सकती हैं । दालें,
चना, सोयाबीन, दूध से बनी चीजें
जैसे पनीर, दही । मूंगफली, काजू, बादाम, खजूर । मांस और मछली के
सेवन से प्रोटीन की अत्यधिक मात्रा प्राप्त की जा सकती है । पर शाकाहारी स्त्रियां
ऊपर दी गयी चीजों को भोजन में शामिल करके प्रोटीन प्राप्त कर सकती हैं ।
फोलिक एसिड गर्भ में पल रहे शिशु के मस्तिष्क और स्पाइनल
कार्ड के विकास में आवश्यक होता है । यह हरी सब्जियों, मक्के के आटे, संतरे और चावल, में पाया जाता है ।
विटामिन डी हड्डियों के विकास के लिये बहुत जरूरी होता है ।
आजकल कैल्शियम की टैबलेट में यह मिक्स रहता है । यह हमें सूर्य की रोशनी से
पर्याप्त मात्रा में मिलता है । इसलिये नवजात शिशु को कम से कम 15 मिनट के लिये दिन में एक बार हल्की धूप में ले
जाना चाहिये ।
गर्भवती स्त्री को भोजन में मिनरल्स भी पर्याप्त मात्रा में
लेते रहना चाहिये जैसे फॉसफोरस, कॉपर, आयोडीन, मैंगनीज, कोबाल्ट, जिंक इत्यादि । इनसे रक्त बनता है और
मांसपेशियॉं मजबूत होती हैं । ये अधिक्तर सब्जियों, फलों और अंकुरित अनाज और दालो से प्राप्त होते हैं ।
गर्भावस्था के दौरान होने वाली आम परेशानियॉं
गर्भावस्था के दौरान स्त्री के शरीर के कई अंगों का रंग
सांवला होने लगता है ऐसा त्वचा के नीचे मेलेनिन इकट्ठा होने का कारण होता है । यह
शरीर में कई प्रकार के द्रव बनने के कारण होता है ।
गर्भावस्था के दौरान स्त्री के शरीर में कई जगह सफेद
धारियॉं पड़ने लगती हैं जैसे नाभि से नीचे की ओर, पेट पर, स्तनों पर,
जांघों पर । ऐसा मांसपेशियों के खिचाव के कारण
होता है । अगर प्रसव के बाद नियमित मालिश या व्यायाम नहीं किया गया तब ये धारियॉं
जल्दी नहीं जाती हैं ।
गर्भवती स्त्री के शरीर के कुछ हिस्सों में नसें दिखने लगती
हैं । ऐसा खून के दबाव के कारण होता है । इनमें दर्द भी होता है । ऐसी दशा में
अधिक देर खड़े नहीं रहना चाहिये और लेटते समय पैरों के नीचे कुशन या तकिया लगा लेनी
चाहिये ।
आठवें, नौवें महीने में
गर्भवती स्त्री को सांस लेने में दिक्कत आती है । यह गर्भ में पल रहे शिशु का आकार
बढ़ने पर होता है जिससे फेफड़ों पर दबाव पडता है । ऐसी हालत में गर्भवती को आराम
अधिक करना चाहिये ।
गर्भावस्था में स्त्रियों का ब्लडप्रेशर सामन्यतः लो हो
जाता है जिसके कारण उन्हें चक्कर आने लगता है और घबराहट होने लगती है । ऐसे में
डाक्टर से परामर्श लेना चाहिये ।
गर्भावस्था में स्त्रियों को शरीर में खुजली और जलन की भी
शिकायत होती है । ऐसा त्वचा में खिचाव के कारण होता है । नारियल तेल या आलिव आयल
का तेल लगाने से ये दिक्कत दूर हो जाती है ।
कमर दर्द की दिक्कत गर्भावस्था में आम बात है । ऐसा शरीर
में प्रोटीन और कैल्शियम की कमी के कारण होता है । गर्भावस्था में शरीर का भार बढ़
जाता है और कूल्हे की हड्डियों के ढीला होने के कारण होता है । ऐसी अवस्था में
आराम अधिक करना चाहिये ।
गर्भावस्था में स्त्री को उल्टी की दिक्कत आती है । यह पेट
में भोजन आगे न बढ़पाने के कारण होता है । इस वजह से पेट का फूलना, गैस बनना, हाजमा कमजोर होना, ऐसिडिटी, कब्ज इत्यादि की
समस्या आती है । ऐसे में खाना थोड़ा थोड़ा करके खाना चाहिये । तुलसी की चाय, ग्रीन टी, इलायची खाने से आराम मिलता है ।
गर्भावस्था के दौरान खून का दौरा कम हो जाता है ऐसे में हाथ
पैर सुन्न होने लगते हैं । इन दिनों ढीले कपड़े पहनने चाहिये । ज्यादा दिक्कत होने
पर डाक्टर से परामर्श लेना चाहिये ।
गर्भावस्था के दौरान स्त्री को खट्टा, इमली, कच्चे आम, मिट्टी खाने का
मन करता है । यह शरीर में प्रोटीन और मिनरल्स की कमी के कारण होता है ।
गर्भावस्था के दौरान नींद कम आती है । यह भविष्य की चिंता
के कारण भी होता है । मानसिक चिंताओं के बारे में घरवालों से सलाह लेनी चाहिये ।
चाय- काफी का प्रयोग कम कर देना चाहिये । तेल की हल्की मालिश और गर्म पानी से
पिंडलियों की सिंकाई से भी नींद अच्छी आती है ।
गर्भावस्था के दौरान पैदल चलना और साफ हवा में सांस लेना
अच्छा व्यायाम है । तेज नहीं चलना चाहिये और हील नहीं पहननी चाहिये ।
गर्भावस्था के दौरान किसी भी प्रकार का नशा, तमाखू या शराब गर्भ में पल रहे शिशु के लिये
अत्यधिक हानिकारक होता है ।
गर्भावस्था में अपने से कोयी दवा नहीं लेनी चाहिये । डाक्टर
के परामर्श से दवा लेनी चाहिये ।
गर्भावस्था के दौरान स्त्री के ब्लडप्रेशर पर हमेशा निगाह
रखनी चाहिये । ब्लडप्रेशर अधिक हो जाने पर गर्भपात भी हो सकता है ।
नवजाज शिशु की देखभाल - शिशु का टीकाकरण
जन्म के समय - हैपीटाईटिस बी, बी.सी.जी. और पोलियो का टीका
दो माह बाद – पोलियो, डी.पी.टी.,
एच.आई.बी. और हैपीटाईटिस बी
तीसरे माह में - पोलियो और डी.पी.टी
चौथे माह में - पोलियो और डी.पी.टी और एच. आई.वी.
पांचवे माह में - पोलियो
छठे माह में - हैपीटाईटिस और एच आई वी
नौवे माह में - खसरा
बारहवे माह में -
चिकनपॉक्स और हैपीटाइटिस ए
अठारहवे माह में – पोलियो, डी पी टी,
हैपीटाइटिस एच आई वी
दूसरे साल में - टायफाइड
3 वर्ष में – पोलियो, डी पी टी और हैपीटाइटिस बी
5 वर्ष में - टिटनेस
नवजात शिशु की देखभाल
नवजात शिशु छः माह तक होने तक दिन में करीब 18 घंटे तक सोता है । जन्म के बाद शिशु के शरीर
पर लाल व नीले रंग के कुछ निशान होते हैं जो कि कुछ माह में धीरे धीरे खत्म हो
जाते हैं । शिशु को अकेला नहीं छोड़ना चाहिये । उसे बिस्तर पर पूरा ढक कर नहीं रखना
चाहिये जिससे किसी दूसरे व्यक्ति को तकिया या गद्दे का भ्रम हो जाये और वह उस पर
अपने शरीर का भार डाल दे । बच्चा के रोने के कई कारण होते हैं जैसा भूख लगना,
कपड़ा गीला होना, सर्दी जुकाम, पेट दर्द या गैस । बच्चा अकेलापन महसूस करने पर भी रोता है ।
सामान्यतः बच्चा 24 घंटे में पोट्टी करता है । बच्चे की पहली पोट्टी काली चिकनी होती है । 3-4 दिन बाद बच्चे की पोट्टी का रंग पीला होने
लगता है । बच्चा दिन में कई बार पोट्टी करता है । नवजात शिशु के पैदा होने से 36 घंटे के अंदर पेशाब करनी चाहिये । अगर पेशाब न
हो तो डाक्टर दिखाना चाहिये ।
बच्चों को नहलाते समय सावधानी बरतनी चाहिये । कभी भी बच्चे
को टब या बाल्टी में नहलाते वक्त अकेला
नहीं छोड़ना चाहिये । बच्चे को नहलाने के
लिये सामान्य साबुन का इस्तेमाल नहीं करना चाहिये । बच्चे के कान में पानी न जाये
इसके लिये कान में थोड़ी रूई लगा देनी चाहिये और नहलाने के बाद उसे फेंक देना
चाहिये । बच्चे को लगाने के पावडर अलग से आते हैं । बच्चे के मलद्वार को रूई गीला
करके हल्के से पोछना चाहिये नहीं तो वहां खरोंचें आ जाती हैं ।
नवजात शिशु को दूध की मात्रा और भोजन
नवजात शिशु के लिये मॉं का दूध अमृत होता है । प्रसव के कुछ
दिनों तक मॉं के स्तन से गाढ़ा पीला दूध निकलता है । इसे कोलस्ट्रम कहते हैं । इस
दूध में जादुई गुण होते हैं । ये दूध इम्यून पावर से भरपूर होता है । ये दूध शिशु
के लिये सुपाच्य होता है । मॉं के दूध से बच्चे को कोयी एलर्जी या शिकायत नहीं
होती है जबकि बाहर के दूध से उसे दस्त या दूसरी बीमारियॉं हो सकती हैं । मॉं के
सीने से लग कर स्तनपान करने से मॉं और बच्चे के बीच आत्मीय रिश्ता पनपता है । मॉं
बच्चे को कभी भी स्तनपान करा सकती है पर बोतल से दूध देने से पहले दूध को पकाना पड़ता
है, बोतल को गर्म पानी से साफ
करना पड़ता है । कभी भी बच्चे को बोतल का बचा हुआ दूध दुबारा नहीं पिलाना चाहिये ।
स्तनपान कराते समय सावधानियॉं
बच्चे को स्तनपान कराते वक्त उसकी नाक पर जोर नहीं देना
चाहिये जिससे की उसे सांस लेने में तकलीफ हो ।
नवजात शिशु को केवल मॉं का दूध ही देना चाहिये । उन्हें अलग
से पानी देने की जरूरत नहीं होती है ।
स्तनपान कराते समय बच्चे का सिर हमेशा ऊपर की ओर होना
चाहिये और बैठ कर ही स्तनपान कराना चाहिये ।
स्तनपान के साथ बच्चा कुछ मात्रा में हवा भी पेट में ले
जाता है जिससे पेट में गैस बनने लगती है । शिशु को छाती से लगा कर पीठ पर थपकी
देने से शिशु की गैस निकल जाती है ।
स्तनपान के बाद स्तनों को गीले कपड़े से साफ करना चाहिये ।
बच्चे अधिक्तर एक ही करवट सोते हैं जिससे उनकी पाचनक्रिया
प्रभावित होती है । मॉं को बच्चे की करवट बदलते रहना चाहिये ।
यदि बच्चे को बीमारी के कारण आई सी यू में एडमिट किया गया
है तब भी बच्चे को मॉं का दूध ही देना चाहिये । चाहे इसके लिये मॉं का दूध निकाल
कर बूँद बूँद ही पिलाने पड़े ।
दो से तीन माह के शिशु को गाय या भैंस का दूध दिया जा सकता
है पर स्तनपान न होने की दशा में ही ।
चार माह के शिशु को मॉं के दूध के अलावा मला हुआ केला,
मला हुआ आलू या सेब, शहद पानी में मिलाकर, दाल का पानी दिया जा सकता है ।
छः माह के शिशु को पतली दलिया या खिचड़ी, दाल का पानी, बिस्कुट, मले हुये फल और
रस, सब्जियों का सूप, अंडे का पीला भाग, दही दिया जा सकता है ।
दस माह के बच्चे को ताजी रोटी, सब्जी, दाल चावल,
फल, वगैरह दिया जा सकता है पर मिर्च मसाला और तली भुनी चीजें अभी नहीं देनी चाहिये
।
प्रसव के बाद स्त्री की मालिश
प्रसव के बाद स्त्री के शरीर की मांसपेशियॉं ढीली हो जाती
हैं और इसलिये उन्हें दुबारा सुगठित बनाने के लिये मालिश बहुत जरूरी होती है । यह
काम अनुभवी दाई या घर की अनुभवी महिलाओं से कराना चाहिये । मालिश से खून का दौरा
सही होता है और मांसपेशियॉं कसने लगती हैं । मालिश के लिये सरसों, तिल, बादाम रोगन, ओलिव आयल का
प्रयोग किया जा सकता है । मालिश करते वक्त बहुत ताकत लगाने की जरूरत नहीं है ।
मालिश उंगलियों और हथेलियों से ही की जानी चाहिये । मालिश से खून का दौरा सही हो
जाता है और शरीर में चुस्ती आती है । शरीर फिर पहले की तरह गठीला और स्लिम हो जाता
है ।
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