कई बार रात के समय आकाश कि ओर देखने पर लगता है कि कोई तारा
टूटकर एक चमकीली रेखा बनाता हुआ वायुमंडल में गायब हो गया इसे आम भाषा में तारा
टूटना कहते हैं टूटकर गिरने वाले ये आकाशीय पिण्ड वास्तव में तारे नहीं होते,
बल्कि उल्काएं (Meteorites) होती हैं उल्काएं वास्तव में छोटे-बड़े आकाशीय
पिण्ड हैं जो सौरमंडल (Solar System) के सदस्य हैं और सूर्य कि परिक्रमा करते हैं
जब कभी कोई पिण्ड घूमते-घूमते पृथ्वी के पास आ जाता है,
तो पृथ्वी कि आकर्षण शक्ति के कारण यह पिण्ड
पृथ्वी कि और खिच जाता है, खिंचाव से पिण्ड
का वेग बहुत अधिक बढ़ जाता है और वायुमंडल के घिषॅण के कारण यह इतना गर्म हो जाता
है कि इसमें से गैसें निकलने लगती हैं ये गैसें जल उठती है और वायुमंडल प्रकाशित
हो उठता है हवा में रगड़ की आवाज़ दूर-दूर तक सुनाई देती है गर्मी और घिषॅण के कारण
इनके बहुत छोटे-छोटे टुकड़े हो जाते है जो वायुमंडल में ही बिखर जाते हैं लेकिन कुछ
पिण्ड इतने बड़े होते हैं कि वे पूरी तरह वायुमंडल में नस्ट नहीं हो पाते, इसलिए उनके कुछ हिस्से पृथ्वी पर गिर जाते हैं
हमें उल्काएं वायुमंडल में 112 कि. मी. दुरी पर
दिखाई देने लगती हैं
अधिकांश उल्काएं वायुमंडल से पृथ्वी पर 80 कि. मी. दूर कि ऊंचाई तक आते-आते नष्ट हो जाती
हैं इसका वेग प्राय: 160 कि. मी. से लेकर
200 कि. मी. प्रति सैकिण्ड
तक होता है उल्कापात दिन और रात दोनों में ही होता रहता है, लेकिन दिन के प्रकाश में यह हमें दिखाई नहीं देता
उल्काएं वस्तुतः केतुओं (Comets) के ही टुकड़े हैं जब कभी पृथ्वी किसी केतु के मार्ग के पास
से होकर जाती है, तो कुछ टुकड़े
पृथ्वी कि और आकर्षित हो जाते हैं ये टुकड़े बड़े या छोटे दोनों ही हो सकते हैं अब
तक प्राप्त सबसे बड़ा उल्का-पिण्ड लगभग 27 टन (1000 मन)का प्राप्त
हुआ है
उल्काएं कितने प्रकार के होते है?
उल्काएं तीन प्रकार कि होती हैं पहली तरह कि उल्का को टूटता
तारा (Shooting Star) कहते हैं यह कम
प्रकाशयुक्त तारे की तरह जान पड़ती है दूसरी तरह कि उल्का, उल्का प्रस्तर (Meteorites) कहलाती है यह इतनी बड़ी होती है कि इसका कुछ अंश पृथ्वी तक
पहुंच जाता है तीसरी तरह कि उल्का अग्निपिण्ड (Fireballs) कहलाती है ये बड़ी होने पर भी आकाश में ही चूर-चूर हो जाती
हैं
उल्काओं की बाहरी सतह तो गरम होती है, लेकिन भीतर कि सतह ठण्डी होती है ऊपरी सतह के
पिघल जाने से इसके बाहर एक पतली चमकती हुई सतह जम जाती है बहुत से उल्का पिण्डों
में चेचक कि तरह गड्ढे होते हैं उल्का पिण्ड कि रचना पृथ्वी के साधारण रवेदार
पत्थरों कि तरह होती है रवेदार होने से पता चलता है कि ये पत्थर कभी पिघली हुई
अवस्था में रहे होंगे अक्सर उल्काएं पत्थर, लोहा निकल और अन्य तत्वों से बनी होती हैं
30 जून 1908 को साइबेरिया के
येनीशाई नामक एक छोटे से प्रान्त में सात बजे सबेरे एक अत्यंत प्रचंड उल्का देखी
गई सुरज निकल चुका था फिर भी हज़ारों मनुष्यों ने इसकी चमक को देखा और इसकी भयंकर
आवाज़ को सुना इसके गिरने पर पृथ्वी कांप उठी उसके गिरने से वहां का जंगल नष्ट हो
गया, जमीन फट गई और गड्ढे बन
गए उल्का के पत्थर जमीन में इतने अंदर घुस गए कि उनका आज तक भी पता नहीं चल पाया
इसी प्रकार अरिजोना में 1.6 कि. मी. व्यास का एक गड्ढा है इसकी भीतरी दीवार 600 मीटर ऊंची और बाहरी दीवार मिट्टी के बहार आ
जाने से लगभग 140 मीटर ऊंची है l
5 कि. मी. तक इस उल्का के छोटे-छोटे टुकड़े मिलते
हैं l इस उल्का को गिरे हुए
लगभग 1020 वर्ष हो चके हैं
भारत में कई उल्का खण्ड (Meteorites) कलकत्ते के अजायब घर (Museum) में सुरक्षित रखे हुए हैं कोई बड़ा प्रस्तर अभी नहीं मिल सका
है अमेरिका में अब तक 672 उल्का पिण्डों के
नमूने संग्रहालयों में एकत्रित किए है
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